भगवान् श्रीकृष्ण ने मृत्यु शय्या पर पड़े दुर्योधन से कहते हैं……..
“ दुर्योधन युद्ध में तुमने भीष्म पितामह को सेनापति बनाया जिन्होंने भावुकता में अपनी मृत्यु का राज अर्जुन को बता दिया । फिर तुमने गुरू द्रोण को सेनापति बनाया , वह भी पुत्र प्रेम में भावुक होकर अपने हथियार छोड़ देते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं । उसके बाद तुमने कर्ण को सेनापति बनाया जिन्होंने युद्ध के पलड़े को ही पलट दिया और आते ही चारो भाइयों को जीवन दान दे दिया क्योंकि उसने माता कुंती को वचन दिया था कि आपका एक पुत्र ही मरेगा और इस तरह बाकी भाइयों को जीवनदान देकर विजय को ठुकरा दिया ।
हे दुर्योधन! तुमने सेनापति बनाए तो सही थे मगर यह सेनापति काल तथा समय के अनुसार उपयुक्त नहीं थे क्योंकि यह सभी किसी न किसी वचन या भावनात्मक बंधन से बंधे हुए थे । हां , अगर कर्ण से पहले तुम अश्वत्थामा को सेनापति बना देते तब तुम विजय प्राप्त कर सकते थे क्योंकि अश्वत्थामा सभी बंधनों एवं शाप से मुक्त थे । उस नेतृत्व के फलस्वरूप वह रौद्र रूप में पांडव सेना के लिए और भी विनाशकारी बन जाते ।”
इस कहानी का तात्पर्य यह है कि अगर सेनानायक बनना है, राष्ट्र तथा समाज का प्रतिनिधित्व करना है ,विजय हासिल करनी है तो सामर्थ्य के साथ साथ भटकाने वाले हर बंधन,भावुकता और अभिशाप से दूर रहना होगा ।
विजय हासिल करनी है तो सामर्थ्य के साथ साथ भटकाने वाले हर बंधन,भावुकता और अभिशाप से दूर रहना होगा।।
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