आप-हम रो सकते हैं,माथा पीट सकते हैं. ऐसी ही तश्वीर है. बावजूद हम अपने अतीत पर गर्व कर सकते हैं. साथ ही राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट्स से सवाल भी.
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1956 में झारखंड के दुमका में राजकीय पुस्तकालय की स्थापना हुई थी. सोचिए तब ज्ञान की,किताबों की अहमियत को किस तरीके से समझा गया होगा. एक बड़ी लाइब्रेरी जो आजादी के ठीक बाद चालू हुई और आज केवल एक गार्ड के हवाले है.
साल 1958 में इसी राजकीय पुस्तकालय के तहत भ्रमणशील पुस्तकालय को चालू करवाया गया. एक वैन से. जो चोंगा टाइप की गाड़ी कही जाती थी. पूरे संताल परगना में यह गाड़ी किताबों को लेकर पहुंचती थी. 1 लीटर पेट्रोल पर 3 किलोमीटर चलती थी. हालाँकि तब ईंधन भी सस्ती रही होगी. समझिए जैसे आज मोबाइल मेडिकल वाहन पहुंचती है. जिसके स्वास्थ्य स्तर के सुधार में भूमिका की बात जग जाहिर है. जबकि उन दिनों किताबें घर तक पहुंचाने का उद्देश्य सफल रहा था. संताल परगना के कई गाँवों में पुस्कालय खोले गए थे.
सोचिए आजादी के ठीक बाद किताब वाली गाड़ी में लाइब्रेरी बनाकर घर-घर तक भेजी जाती थी. यक़ीनन उन दिनों राजनीति और ब्यूरोक्रेसी ने ज्ञान के,किताबों के वैल्यू को तवज्जो दिया होगा.
इस भ्रमणशील पुस्तकालय में एक ट्राली भी होती थी. जिसमें 4 साइकिल चालक भी होते थे. वे दूर-दराज के गाँवों में जाते जहां गाड़ी नहीं पहुंचती थी. लोगों को किताबें व पाठ्य सामग्री पहुंचाते थे.
इन गाड़ियों में कई गैलेन ईंधन डाले गए,टायर बदले गए. उन दिनों पुस्तकालय भी राज्य के बजट का हिस्सा रहा होगा.
फ़िलवक्त राजकीय पुस्तकालय की चीख भी बाहर नहीं सुनाई पड़ती है. और गाड़ी वाली लाइब्रेरी रो रही है की हँस रही है,एक पहेली है. यों सरकारें आती-जाती रहीं हैं.